गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती बुक पढ़े पीडीएफ


धर्मवीर भारती के इस उपन्यास का प्रकाशन और इसके प्रति पाठकों का अटूट सम्मोहन हिन्दी साहित्य जगत् की एक बड़ी उपलब्धि बन गये है। दरअसल, यह उपन्यास हमारे समय में भारतीय भाषाओं की सबसे अधिक बिकने वाली लोकप्रिय साहित्यिक पुस्तकों में पहली पंक्ति में है। ताखी ताख पाठकों के लिए प्रिय द्वरा अनूठे उपन्यास की माँग आज भी वैसी ही बनी हुई है जैसी कि उसके प्रकाशन के प्रारम्भिक वर्षों में थी। और इस सबका बड़ा कारण शायद एक समर्थ रचनाकार की कोई अवरक्त पीड़ा और एकाना आस्था है. जिसने इस उपन्यास को एक अद्वितीय कृति बना दिया है।

प्रथम खण्ड- 1


अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होती तो में कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमेण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बंधे बंधारों नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सडकों से चौड़ी सड़कें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजर्जी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी। धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले. मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊन्सर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।


और चाहे जो हो. मगर इधर कार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शिपम और पैजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बोरों की खुशबू से भी जादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो पा अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और तहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जाएँ तो इन खुली हुई जगहों की किजाँ इठलाकर आपको आ आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हल्की सूनहत्ती हल्की सुनहत्ती, बात-सूर्य की अंगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौराले गेसुओं को धीर-धीर रे-धीर हटाती जाती है और क्षितिज पर सुनहली तरुणाई बिखर पड़ती है।

एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी. और जिसकी कहानी में कहने जा रहा हूँ. यह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक प्रभाती गाकर फूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अलफ्रेड पार्क के तॉन पर फूतों की सरजमों के किनारे किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटयों के रंग का परमीने का तम्बा कोट, जिसका एक कातर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होत में लगी हुई थी, सफेद मक्खन जीन की फाली पेट और पैरों में सफेद जरी की पेशाकरी रोण्डिते. भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी तट। यतते बलते उसने एक रंग बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह रह कर वह उसे हुँध लेता था।


पूरब के आसमान की गुलाबी पाँवरियों बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी। “अरे सुबह हो गयी। उसने बौककर कहा और पास की एक बेथ पर बैठ गया। सामने से एक माती आ रहा था। क्यों जी. ताइब्रेरी खुल गयी अभी नहीं बाबूजी उसने उसने जवाब दिया। वह फिर सन्तोष से बैठ गया और फूलों की पारियों नोचकर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर भरतें बिछाती जा रही थी और पेड़ों की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसकी बेंच के नीचे फूलों की चुनी हुई पतियों विखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ एक फूल बाकी रह गया था। हलके कालसई रंग के उस पूल पर गहरे बैजनी डोरे थे।


हलो कपूरा सहसा किसी ने पीछे से कन्चे पर हाथ रखकर कहा, “यहाँ क्या झक
मार रहे हो सुबह-सुबह उसने मुडकर पीले देखा, आओ ठाकुर साहब आओ बैठी यार, लाइब्रेरी खुलने का इन्तजार कर रहा हूँ।
क्यों, यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी चार डाली, अब इसे तो शरीफ लोगों के लिए छोड़ दो हाँ, डॉ. शरीफ लोगों ही के लिए छोड़ रहा हूँ, डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इसकी मेम्बर बनना बाहती थी ती मुझे आना पड़ा, उसी का इन्तजार भी कर रहा
“डॉक्टर शुक्ता ती पॉलिटिक्स डिपार्टमेंट में है।नहीं, गवर्नमेंट साइकोलॉजिकल ब्यूरो में।-और तुम पॉलिटिक्स में रिसर्च कर रहे हो नहीं, इकनॉमिक्स मेंबहुत अच्छे तो उनकी लड़की की सदस्य बनवाने आये ही कुछ अब स्वर में ठाकुर ने कहा।

“जित कपूर ने हँसते हुए, कुछ अपने को बचाते हुए कहर, पार, तुम जानते हो कि मेरा उनसे कितना घरेलू सम्बन्ध है। जब से में प्रयाग में हूँ. उन्हीं के सहारे हूँ और आजकल तो उन्हीं के यहाँ पड़ता लिखता भी हूँठाकुर साहब हँस पड़े, अरे भाई में डॉक्टर शुक्ला को जानता नहीं क्याः उनका सा भता आदमी मिलना मुश्किल हैं। तुम सफाईव्यर्थ में दे रहे हो।


ठाकुर साहब यूनिवर्सिटी के उन विद्यार्थियों में से थे जो बरापनाम विद्यार्थी होते हैं और कब तक वे यूनिवर्सिटी को सुशोभित करते रहेंगे, इसका कोई निक्षम नहीं। एक अच्छे खासे रुपये वाले व्यकित थे और घर के तात्तुकेदार। हँसमुख, फब्तियों कराने में मजा लेने वाते. मगर दिल के साफ, निगाह के राथे। बोते”एक बात तो में सवीकार करता हूँ कि तुम्हारी पढ़ाई का सारा श्रेय डॉ. शुक्ला को है। तुम्हारे घर वाले तो कुछ खर्चा भेजते नहीं नाहीं उनसे अतन ही होकर आया था। समझ लो कि इन्होंने किसी-न-किसी बहाने मदद की है।


अच्छा, आओ, तब तक लोटस पोठ (कमल सरोवर तक ही धूम लें। फिर लाइब्रेरी भी खुल जाएगी। दोनों उठकर एक कृत्रिम कमल-सरोवर की ओर बल दिये जो पास ही में बना हुआ था। सीदियों चढ़कर ही उन्होंने देखा कि एक सजन किनारे बैठे कमले की ओर एकटक देखते हुए ध्यान में तल्लीन है। छिपकली से दुबले-पतले बालों की एक तट माथे पर झूमती हुई कोई प्रेमी है, या कोई फिलासफर है. देखा ठाकुरा नहीं यार, दोनों से निकृष्ट कोटि के जीत हैं-ये कति हैं। में इन्हें जानता हूँ। ये रवीन्द्र विसरिया हैं। एम ए. में पढ़ता है। आओ मिलाएँ तुम्हें ठाकुर साहब ने एक बड़ा-सा घास का तिनका तोठकर पीछे से चुपके से जाकर उसकी गरदन गुदगुदायी। बिसरिया चौक उठा-पीछे मुडकर देखा और बिगह गया यह क्या बदतमीजी है, ठाकुर साहब में कितने गम्भीर विचारों में डूबा था।

और सहसा बड़े विचित्र स्वर में आँखें बन्द कर बिसरिया बोला, “आहः कैसा मनोरम प्रभात है। मेरी आज्या में घोर अनुभूति हो रही थी कपूर विसरिया की मुद्रा पर ठाकुर साहब की ओर देखकर मुसकराया और इशारे में
बोता है यार शगल की चीज छेड़ो जरा ठाकुर साहब ने तिनका फेंक दिया और बोले, माफ करना, भाई विसरिया। बात यह
है कि हम लोग कवि तो हैं नहीं, इसलिए समझ नहीं पाते। क्या सोच रहे थे तुम

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